जिन अधरों ने सरस सुधामय छंदों से था,
विनय अर्चना के तालों में तुम्हे रिझाया,अंतर्मन के भावों से श्रृंगारित कर के,
करुण मधुर-कटु-उर साधों का अर्घ्य चढ़ाया।
आज उन्ही मेरे स्वर मय अधरों की भाषा ,
यह वर्षा सी बरस रही ऑंखें हो लेंगी,
बंद रहेंगे अधर, मगर ऑंखें बोलेंगी।
टाल समय की गति और नियति की शाप छुड़ा कर,
मैं आई थी तुम्हारे जीवन में, तुम्हे ह्रदय की पीर सुनाने।
विरह-निशा में बीत रही जो मेरे मन पर,
उसी व्यथा का तुम को सांझीदार बनाने,
किन्तु सामना होते ही हो गयी जुबान चुप,
शब्द लहरिया बोली, भेद न हम खोलेंगी।
बंद रहेंगे अधर मगर ऑंखें बोलेंगी।।
मैंने सोचा था क्षण भर तो सो ही लूंगी,
सघन तुम्हारे चिकुर भार की मृदु छाया में,
जग की माया भूल जरा फिर खो जाउंगी।
देव! तुम्हारे यौवन की मादक माया में,
और तुम्हारे नयन युग के अम्बर में,
व्याकुल भावों की विहगावलियाँ डोलेंगी,
बंद रहेंगे अधर मगर आँखें बोलेंगी।।
आज मगर मैं हूँ, यह क्षण है, तुम हो,
एक दूसरे को निहारते मौन मग्न से,
कंठ रुद्ध हैं, स्वर वर्जित है, वाणी चुप-चुप,
केवल बात करते ह्रदय की नयन नयन से,
शायद आज युगों के संचित उद्गारों को,
सुधियाँ आँखों के पावन जल में धो लेंगी,
बंद रहेंगे अधर मगर आँखें बोलेंगी।।
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