Friday, 18 January 2013

दिल के रिश्तोँ की नज़ाकत वो समझ पाए ,

नरम लफ्जोँ से भी लग जाती हैँ चोटेँ अक्सर



 
जीती जागती कब्रगाह है ये दिल अपना ,


जाने कितने सपने और उम्मीदेँ दफन है इसमेँ


उसने समझा ही नहीँ और ना समझना चाहा
कि मैँ चाहती भी क्या थी उस से , सिरफ उस के सिवा ।।


 तलब करेँ तो मैँ अपनी आँखे भी उनको दे दूँ , जिँदगी , मगर ये लोग मेरी आँखोँ के ख्वाब माँगते हैँ


 
जिँदगी इक दुकान खिलौनोँ की ,
 वक्त बिगडा हुआ सा बच्चा है

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