दिल के रिश्तोँ की नज़ाकत वो न समझ पाए ,
नरम लफ्जोँ से भी लग जाती हैँ चोटेँ अक्सर ।
जीती जागती कब्रगाह है ये दिल अपना ,
नरम लफ्जोँ से भी लग जाती हैँ चोटेँ अक्सर ।
जीती जागती कब्रगाह है ये दिल अपना ,
जाने कितने सपने और उम्मीदेँ दफन है इसमेँ ।
उसने समझा ही नहीँ और ना समझना चाहा ।
कि मैँ चाहती भी क्या थी उस से , सिरफ उस के सिवा ।।
तलब करेँ तो मैँ अपनी आँखे भी उनको दे दूँ , ऐ जिँदगी , मगर ये लोग मेरी आँखोँ के ख्वाब माँगते हैँ ।
जिँदगी इक दुकान खिलौनोँ की ,
वक्त बिगडा हुआ सा बच्चा है ।
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