Friday, 18 January 2013

तारे गिन गिन काटी मैंने

 तारे गिन गिन काटी मैंने अब तक रातें बहुत अँधेरी !पगली कोयल !पहले आती,मेरे दिल की भी सुन जाती,बैठे आम की डालों पर तू,फिर यूं मीठे गीत गाती,
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अधरों पर मुस्कान क्षण में दशा बदलती तेरी,तारे गिन गिन कटी मैंने अब तक रातें बहुत अँधेरी !!अल्हड कलियाँ हंसती आई,जग को परिमल खूब लुटाई,पत्ती- पत्ती नाच उठी थी-पर मैं देती रही दुहाई,अरी बहारो ! अब आना सूख गयी है बगिया मेरी !तारे गिन गिन काटी...................जीवन के जो थे उजियारे,भूल गयी मैं सपने सारे,जीवन घन बिन जीवन कैसा-कहता कोई साँझ सकारे,अंतर की ज्वालायें इसको कर देंगी, अब राख की ढेरी,तारे गिन गिन काटी...........सूख गए है बहते सोते,घावों को ये कब तक धोते,प्राणों ! क्या दूँ तुम्हे
आज निराश यूं तुम होते,साध अधूरी ले जाओ, बस अब क्यों इतनी की है देरी,तारे गिन गिन काटी.......

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