Sunday, 9 December 2012

पुरुष !!तुम्हारी जय कैसे बोलूं ? तुमने तो मेरा स्वर ही छीन लिया
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मेरे गीतों का , गला दबा डाला , पाषाणी पंजो से, उफने यौवन को , तुमने बांध दिया बरबस , मुर्दा दानव सी, इन चट्टानी बाँहों में, पुरुष ! तुम्ही तो,युग युग से, बल का सहारा ले ,अधिकारों के रथ पर बैठे , हर ओर रोंदते रहे ,फसल कोमलता की, तुमने ही एक अहिल्या को, पहले पाषाणी जन्म दिया , फिर ठोकर से उधार किया , बोलो ! जवाब दो !! वे कर-- किसी पुरुष के थे या नहीं ? जिन्होने द्रोपदी की साडी खिंची , फिर उसके लिये , महाभारत को तुमने ही रचा , कया नारी होना --- पाप तुम्हारी धरती पर? ओर पुण्य पुरुष का जन्म - तुम्हारी दुनिया में? सौगंध तुम्हे , प्यासे मरू की उमड़े घन की, इस लाज भरी हरियाली की, नीलाभ गगन के आँगन में, खिलते चंदा की, तारों की,

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हाँ " कहने से पहले , निष्ठुर तुम भूल जाना यह , तुमको जन्म दिया जिसने , वेह नारी है, तुम धकेल दो निष्ठुरता से विस्मृति के अंधकार में चाहे , उस गोदी को जिसकी लोरी ने साँझ ढले , सपनों की परतें , जड़ी तुम्हारी पलकों पर, पर मैं कैसे विस्मृत कर दूँ मैं नारी हूँ . मैंने ही जन्म दिया है, इस मानवता को जा तुझे वचन भी देती हूँ , तेरी अंकुरित फसलों को जीवन दूंगी ,ममता दूंगी ..

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