Sunday, 9 December 2012

मेरी पलकों में अनजाने,

पेड़ की डाली पर,एक पपीहा, रोकर करने लगा पुकार,मेरी पलकों में अनजाने, घिर आये आंसू दो-चार.कितना चाहा जीवन के अरमान सुनहले , गा लें मधुमय- गीतों के मिटने से पहले,पर सूखे अधरों को किसने सरसाया है? बिछुड़ गया जो मीत, उसे किसने पाया है.आहों के बदरा तडपा कर,लूट गए मेरा संसार,
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मेरी पलकों में अनजाने, घिर आये आंसू दो-चार.इस जग ने कब किस के दुःख को पहचाना है? ढलते सूरज को किसने सूरज माना है?पंछी ज्यों मिलते और बिछुड़ जाते हैं, कल तक जो अपने थे, वो ही ठुकराते हैं.चूम लिया मकरंद प्रात ने, बाकी बचे हाय! कुछ खार!मेरी पलकों में अनजाने, घिर आये आंसू दो-चार!मुझ राही का संबल ही संताप बन गया, दूरी का अनुमान मौन-अभिशाप बन गया,बस, साथी एक बना गगन का बुझता तारा, जिस ने देखा उस दिन मिटता प्यार हमारा ,मेरा सावन भी सूखा ही, मिली जिसे रसमयी धर,मेरी पलकों में अनजाने घिर आये आंसू दो-चार!मैंने नहीं कभी जीवन में अमृत पाया, विष के घूंटो को पी कर इसको दुलराया, तूफानों से टकराई यह मस्त जवानी, अंगारों में पलती आई सदा कहानी!बीत गए वे दिन बहार के, बजते थे जिन में उर-तार! मेरी पलकों में अनजाने घिर आये आंसू दो-चार,सागर में बहते तिनके सी मेरी आशा, जिसके अंतर में विराजित है सदा निराशा,फिर कैसे प्रिय! इस बेला में तुम्हे बुलाऊ ? स्नेह-हीन सूनी आँखों के दीप जलाऊ!मंदिर के पट बंद हो गए, कड़ी पुजारिन रही निहार,मेरी पलकों में अनजाने घिर आये आंसू दो-चार.......

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