Sunday, 9 December 2012

अभी न भर पाए थे, दिल के घाव पुराने,

अभी भर पाए थे, दिल के घाव पुराने, उधर पुनः पतझड़ो का आमंत्रण आया! सुख दुःख के दो भागों में बंट जाना जीवन , मौत सिर्फ सुख दुःख का बंधन कट जाना है! अर्थ जिन्दगी का, राहों पर चलते जाना है,
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आज चले थे हम राहों का दिल बहलाने, पर कारी बदरी ने आकर पथ बिसराया... ऊपर से दिखे लहरों में खूब रवानी, बीत रही जो उन पर उनका दिल ही जाने? झुकी-झुकी क्यों रोती हो तरुवर की डारो ? झड कर फूल चला दूजी बगिया महकने! अभी लहरें कह पाई पूरे अफसाने, उधर किनारों की आँखों में जल भर आया! पूरा कर व्यापार, देश को गया सौदागार, भोले ग्राहक, तुमने उसका भेद जाना ! क्सिमत में था कांच, मिला हीरे के बदले, अब क्या आये काम, नयन से नीर बहाना? लौटेगा सौदागर, दुकान सजाने, तुमने तो बेकार पंथ में समय बिताया! आज चली शबनम कलियों के आंसू धोने, रुको अभी पतझड़ो, मधुबन में आना! मधुबन के मेहमान, निद्रा त्यागो, मधुबन जलने को है, अपने प्राण बचाना! तुम आये थे यहाँ नया संसार बसने, पतझड़ ने पत्ती-पत्ती का रूप जलाया.

मेरी पलकों में अनजाने,

पेड़ की डाली पर,एक पपीहा, रोकर करने लगा पुकार,मेरी पलकों में अनजाने, घिर आये आंसू दो-चार.कितना चाहा जीवन के अरमान सुनहले , गा लें मधुमय- गीतों के मिटने से पहले,पर सूखे अधरों को किसने सरसाया है? बिछुड़ गया जो मीत, उसे किसने पाया है.आहों के बदरा तडपा कर,लूट गए मेरा संसार,
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मेरी पलकों में अनजाने, घिर आये आंसू दो-चार.इस जग ने कब किस के दुःख को पहचाना है? ढलते सूरज को किसने सूरज माना है?पंछी ज्यों मिलते और बिछुड़ जाते हैं, कल तक जो अपने थे, वो ही ठुकराते हैं.चूम लिया मकरंद प्रात ने, बाकी बचे हाय! कुछ खार!मेरी पलकों में अनजाने, घिर आये आंसू दो-चार!मुझ राही का संबल ही संताप बन गया, दूरी का अनुमान मौन-अभिशाप बन गया,बस, साथी एक बना गगन का बुझता तारा, जिस ने देखा उस दिन मिटता प्यार हमारा ,मेरा सावन भी सूखा ही, मिली जिसे रसमयी धर,मेरी पलकों में अनजाने घिर आये आंसू दो-चार!मैंने नहीं कभी जीवन में अमृत पाया, विष के घूंटो को पी कर इसको दुलराया, तूफानों से टकराई यह मस्त जवानी, अंगारों में पलती आई सदा कहानी!बीत गए वे दिन बहार के, बजते थे जिन में उर-तार! मेरी पलकों में अनजाने घिर आये आंसू दो-चार,सागर में बहते तिनके सी मेरी आशा, जिसके अंतर में विराजित है सदा निराशा,फिर कैसे प्रिय! इस बेला में तुम्हे बुलाऊ ? स्नेह-हीन सूनी आँखों के दीप जलाऊ!मंदिर के पट बंद हो गए, कड़ी पुजारिन रही निहार,मेरी पलकों में अनजाने घिर आये आंसू दो-चार.......

तारे गिन गिन काटी...................

 तारे गिन गिन काटी मैंने अब तक रातें बहुत अँधेरी !पगली कोयल !पहले आती,मेरे दिल की भी सुन जाती,बैठे आम की डालों पर तू,फिर यूं मीठे गीत गाती,
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अधरों पर मुस्कान क्षण में दशा बदलती तेरी,तारे गिन गिन कटी मैंने अब तक रातें बहुत अँधेरी !!अल्हड कलियाँ हंसती आई,जग को परिमल खूब लुटाई,पत्ती- पत्ती नाच उठी थी-पर मैं देती रही दुहाई,अरी बहारो ! अब आना सूख गयी है बगिया मेरी !तारे गिन गिन काटी...................जीवन के जो थे उजियारे,भूल गयी मैं सपने सारे,जीवन घन बिन जीवन कैसा-कहता कोई साँझ सकारे,अंतर की ज्वालायें इसको कर देंगी, अब राख की ढेरी,तारे गिन गिन काटी...........सूख गए है बहते सोते,घावों को ये कब तक धोते,प्राणों ! क्या दूँ तुम्हे
आज निराश यूं तुम होते,साध अधूरी ले जाओ, बस अब क्यों इतनी की है देरी,तारे गिन गिन काटी.......
पुरुष !!तुम्हारी जय कैसे बोलूं ? तुमने तो मेरा स्वर ही छीन लिया
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मेरे गीतों का , गला दबा डाला , पाषाणी पंजो से, उफने यौवन को , तुमने बांध दिया बरबस , मुर्दा दानव सी, इन चट्टानी बाँहों में, पुरुष ! तुम्ही तो,युग युग से, बल का सहारा ले ,अधिकारों के रथ पर बैठे , हर ओर रोंदते रहे ,फसल कोमलता की, तुमने ही एक अहिल्या को, पहले पाषाणी जन्म दिया , फिर ठोकर से उधार किया , बोलो ! जवाब दो !! वे कर-- किसी पुरुष के थे या नहीं ? जिन्होने द्रोपदी की साडी खिंची , फिर उसके लिये , महाभारत को तुमने ही रचा , कया नारी होना --- पाप तुम्हारी धरती पर? ओर पुण्य पुरुष का जन्म - तुम्हारी दुनिया में? सौगंध तुम्हे , प्यासे मरू की उमड़े घन की, इस लाज भरी हरियाली की, नीलाभ गगन के आँगन में, खिलते चंदा की, तारों की,

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हाँ " कहने से पहले , निष्ठुर तुम भूल जाना यह , तुमको जन्म दिया जिसने , वेह नारी है, तुम धकेल दो निष्ठुरता से विस्मृति के अंधकार में चाहे , उस गोदी को जिसकी लोरी ने साँझ ढले , सपनों की परतें , जड़ी तुम्हारी पलकों पर, पर मैं कैसे विस्मृत कर दूँ मैं नारी हूँ . मैंने ही जन्म दिया है, इस मानवता को जा तुझे वचन भी देती हूँ , तेरी अंकुरित फसलों को जीवन दूंगी ,ममता दूंगी ..

Friday, 7 December 2012

कौन देता है उम्र भर का साथ यहाँ ....

कौन देता है उम्र भर का साथ यहाँ ....
लोग तो जनाजे में भी कंधे बदलते हैं ...